अष्टविनायक और तीन ज्योतिर्लिंग यात्रा
महाराष्ट्र यानी महा+राष्ट्र, संस्कृत के इन दो शब्दों का अर्थ है महान देश/प्रदेश। इस प्रांत को यहां के संतों ने महान बनाया है। संत ज्ञानेश्वर (आलंदी), संत तुकाराम (देहू), संत एकनाथ (पैठण) और मेरे लिए सबसे खास है निम्बार्काचार्य जिनका जन्म स्थान महाराष्ट्र का ही मूंगी पैठण है। महाराष्ट्र का नासिक देश के उन चार स्थानों में से एक जहां हर बारह साल बाद कुंभ होता है। नासिक के पास ही पंचवटी (पांच वटों वाला) नामक स्थान है, जहां श्रीराम वनवास के दौरान रहे थे, यही वह स्थान है जहां सूर्पनखा की नाक कटी और सीता का हरण हुुआ। पंढरपुर के बिठोबा मंदिर के विट्ठल नाथ जी के दर्शन की पंढरपुर यात्रा तो मानो इस प्रदेश की आत्मा है। महाराष्ट्र में तीन ज्योतिर्लिंग हैं-त्र्यंबकेश्वर, घ्रिष्णेश्वर और भीमाशंकर, हालांकि यहां दो और शिव मंदिरों बैजनाथ और नागेश्वर का भी ज्योतिर्लिंग में शामिल होने का दावा किया जाता है लेकिन झारखंड के बाबा धाम के वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग और द्वारिका (गुजरात) के नागेश्वर ज्योतिर्लिंग की द्वादश ज्योतिर्लिंगों में प्रामाणिक रूप से गिनती होती है। सप्तशृंगी देवी (जनस्थान, नासिक), कोल्हापुर में महालक्ष्मी देवी, शोलापुर में तुलजा भवानी, माहुर गढ़ में रेणुका भवानी के देवी स्थानों को शक्तिपीठ माना जाता है। मुंबई की मुंबा देवी और महालक्ष्मी देवी भी महाराष्ट्र में पूजनीय देवियां हैं। जब शिव-पार्वती के इतने स्थान है तो जाहिर है उनके पुत्र गणेश के भी यहां अनेक विख्यात स्थान हैं। उनमें से आठ प्रमुख गणेश स्थानों को मिलाकर संयुक्त रूप से अष्ट विनायक कहा जाता है। इसके अलावा विश्व-विख्यात अजंता-एलोरा की गुफाएं, एलीफेंटा की गुफाएं, नासिक की पांडव लेनी जैसे स्थानोंं पर एक से दो हजार पुरानी जैन, बौद्ध व हिंदु अवशेषों के क्या कहने। मुंबई में सिद्धि विनायक, शिरडी में साईं बाबा और शिंगणापुर में शनिदेव के दर्शन बिना भी महाराष्ट्र यात्रा अधूरी है। फिर माया नगरी मुंबई तो भारत की आर्थिक राजधानी कहलाती है, गेटवे ऑफ इंडिया और विक्टोरिया टर्मिनस जैसी भव्य इमारतों का यह शहर देश का पहला कॉस्मोपॉलिटन शहर और भारतीय सिनेमा का गढ़ है।
ज्योतिर्लिंग के दर्शन
अनन्य के 9वीं कक्षा के पेपर 2 मार्च को खत्म हो गए थे और रिजल्ट 15 मार्च को आना था। महाराष्ट्र यात्रा की ख्वाहिश काफी समय से थी, मन था कि कभी एक हफ्ते का मौका मिले तो तीनों ज्योतिर्लिंग, अष्टविनायक और मुंबई अवश्य हो आएं। 3 मार्च की सुबह करीब 10 बजे आईआरसीटीसी की साइट पर मुंबई की टिकट तलाशी तो संयोग से उसी दिन शाम 4 बजे मुंबई सीएसटी राजधानी की टिकट उपलब्ध थी, पहले तो इतना कम समय होने के चलते हिम्मत नहीं हुई पर फिर सोचा कि यदि आज ही निकलेंगे तो कल शिवरात्रि पर कम से कम किसी एक ज्योतिर्लिंग पहुंचकर दर्शन तो अवश्य कर सकते हैं। मैंने बॉस से बात की कि क्या वे मुझे 8-10 दिन की छुट्टी दे देंगे, उन्होंने तुरंत अनुमति दे दी। करीब साढ़े 11 बजे टिकट कटवाकर मैंने अनन्य व बबीता को सरप्राइज दिया कि अगले दो से ढाई घंटे में तैयार होकर हमें मुंबई की ट्रेन पकड़नी है। छुट्टी का पहला दिन होने के चलते जहां घर में हर काम सुस्त गति से चल रहा था, उसमें अचानक करेंट दौड़ गया। अनन्य को भारी खुशी हुई, उसे तो मुंबई जाने की बात सुनकर ऐसा लगा मानो जीवन की सर्वोच्च यात्रा पर जाने का मौका मिल गया है। अभी एक साल भी पूरा नहीं हुआ था कि हमने उत्तराखंड के चार धाम और भारत के चार धामों में शामिल बद्रीनाथ के साथ केदारनाथ, गंगोत्री व यमुनोत्री की (मई-जून, 2018) यात्रा की थी और इस यात्रा में हमने एक लाख रुपए से अधिक खर्च कर दिए थे। जनवरी व फरवरी में मैंने पीपीएफ का पैसा जमा किया था, इसके बाद इतने अधिक पैसे नहीं थे कि फिर घूमने पर 40-50 हजार खर्च किए जाएं यानी आर्थिक लिहाज से अचानक में यात्रा का फैसला कुछ जोखिमभरा था लेकिन दो दिन पहले ही सैलरी आई थी, इसलिए मेरे मन में भी कम उत्साह नहीं था, सोचा जो होगा देखा जाएगा।
पिछले कुछ वर्षों में हमने कई लंबी यात्राएं की थीं सो एक तरह से हमें प्रेक्टिस थी और तैयार होने में हमें ज्यादा वक्त नहीं लगा। स्टेशन पहुंचे तो ट्रेन प्लेटफॉर्म पर लगी थी। सैकेंड एसी में सीट संभालते ही अब मेरी पहली प्राथमिकता अपना शेड्यूल तय करना था कि तीनों ज्योतिर्लिंग और अष्टविनायक यात्रा किस तरह कम समय और कम खर्चे में पूरी की जाए। जगह-जगह होटल बुक करना, यात्रा के लोकल आवागमन की व्यवस्था करना और हर लक्षित स्थान तक पहुंच जाना वह भी बिना किसी गाइड की मदद लिए-ये सब एक बड़ी चुनौती थी। तय किया कि ट्रेन से सीधे मुंबई न जाकर नासिक उतर जाएंगे। इस तरह हमने अपने यात्री की शुरूआत नासिक से की। नासिक दक्षिण की गंगा कहे जाने वाली गोदावरी के तट पर स्थित है। भारत में जिन चार स्थानों पर कुंभ का आयोजन होता है, नासिक उनमें से एक है। नासिक के गोदावरी तट पर रामकुंड ही वह स्थान है जहां कुंभ के दौरान शाही स्नान होता है। मैंने स्टेशन से बाहर आते ही सीधे रामकुंड के लिए ऑटो किया और रामकुंड के पास तिराहे पर उतर गया। चाय की दुकान पर चाय पी, उसी ने बताया कि बिड़ला सदन में पता करूं, वहां मुझे बहुत बढ़िया कमरा मिल गया। सामान रखकर हम गोदावरी स्नान के लिए निकल लिए। हमने रामकुंड पर गोदावरी में स्नान किया। (इससे पहले नदी व सागर में यमुना (वृंदावन व यमुनोत्री), गंगा (हरिद्वार, गंगोत्री), गंगा सागर, पुरी के गोल्डन बीच, द्वारिका की गोमती नदी और रामेश्वरम के अग्नितीर्थ में स्नान का मौका मिला।) गोदावरी में स्नान करके बहुत आनंद आया, हमें कुंभ में स्नान करने जैसा ही अनुभव मिला क्योंकि इलाहाबाद में चल रहे अर्धकुंभ में उस दिन शिवरात्रि का शाही स्नान था और हम भी एक ऐसे स्थान पर नदी में ही स्नान कर रहे थे, जहां कुंभ के समय वैष्णवी साधु शाही स्नान करते हैं। स्नान के बाद बाजार में साबूदाने की खिचड़ी और साबूदाने के ही बड़े का नाश्ता किया, अनन्य ने बड़ा पाव पसंद किया और त्र्यंबकेश्वर के लिए बस से निकल लिए। नासिक से त्र्यंबकेश्वर करीब 30 किलोमीटर दूर है। त्र्यंबक से करीब 5-6 किलोमीटर पहले अंजनेरी पहाड़ी पड़ी। माना जाता है कि इसी पहाड़ी पर हनुमानजी का जन्म हुआ था, उनकी मां अंजनी के नाम पर ही इस पहाड़ी का नाम रखा गया है।
लेकिन जैसे ही त्र्यंबकेश्वर पहुंचे तो पता चला कि यहां पंडे-पुजारियों ने हड़ताल कर दी है और एक द्वार को छोड़कर मुख्य द्वार सहित सभी द्वार बंद थे, शीघ्र दर्शन (200 रुपए फीस वाली) की वीआईपी दर्शन की व्यवस्था भी ठप थी। मन काफी उदास हो गया क्योंकि जो द्वार खुला था वहां से अंदर जाने के लिए कम से कम एक-दो किलोमीटर की लंबी कतार लगी थी। मैंने त्र्यंबकेश्वर में भास्कर संवाददाता को फोन करके बुलाया जो कि यहां पंडा-पुरोहित भी हैं। उन्होंने भी कई कोशिशों की बाद कहा कि अगली सुबह-सुबह आएं तो वे गर्भगृह में जल भी चढ़वा देंगे। लेकिन तभी भगवान ने हम पर विशेष कृपा की, अचानक मंदिर के ठीक बगल में हवेलीनुमा एक भवन में एक दरवाजे को आधा खोल कर उन्होंने (पुरोहित ने) हमें अंदर आने को कहा और 10 सैकेंड से भी कम समय में मंदिर के मुख्य परिसर में पहुंच गए। वे हमें सीधे मुख्य मंदिर ले गए और अगले 10 मिनट में हम त्र्यंबकेश्वर ज्योतिर्लिंग के सामने थे। दर्शन करके बहुत आनंद आया लेकिन मन नहीं भरा। मैं नंदी के मंडप तक गया और आम जनता की कतार में लगकर फिर दर्शन करने गया। तीसरी बार जगमोहन से ही फिर कतार में लगकर दर्शन किए। शिवरात्रि को त्र्यंबकेश्वर के दर्शन करके धन्यता का अनुभव हुआ। कल आनन-फानन में जो महाराष्ट्र आने का फैसला लिया था, उसका पहला मकसद पूरा हो गया था। सोमनाथ, नागेश्वर, रामेश्वर, वैद्यनाथ, केदारनाथ के बाद ये छठे ज्योतिर्लिंग हैं जहां हमने दर्शन किए। यहां हमने दोपहर का भोजन भी फलाहारी ही किया, हालांकि अनन्य को हमने पाव भाजी खिलाई।
अष्टविनायक तुझा महिमा कसा
अष्टविनायक यानी आठ गणेश मंदिरों का समूह। महाराष्ट्र के पुणे और आसपास के जिलों के गांवों में आठ स्वयंभू प्रकट विनायक प्रतिमाओं के मंदिर हैं-मोरेश्वर मंदिर, मोरेगांव, पुणे,सिद्धिविनायक मंदिर, सिद्धटेक, अहमदनगर, बल्लालेश्वर मंदिर, पाली, रायगढ़, वरदविनायक मंदिर, महड खोपोली, रायगढ़, चिंतामणि मंदिर, थेऊर, पुणे, गिरिजात्मज मंदिर, लेण्याद्री, पुणे, विघ्नेश्वर मंदिर, ओझर, पुणे, महागणपति मंदिर, राजणगांव, पुणे
इन आठों गणपति के दर्शन की यात्रा अष्टविनायक यात्रा कहलाती है। पारंपरिक रूप से यह यात्रा मोरेगांव के मोरेश्वर मंदिर से शुरू होती है और आठों गणपति के दर्शन के बाद अंत में एक बार फिर मोरेश्वर गणपति के दर्शन के साथ ही संपन्न होती है।
मयूरेश्वर मंदिर पुणे से 55 किलोमीटर दूर बारामती इलाके में करहा नदी के तट पर है। यह गाणपत्य संप्रदाय का आद्यपीठ है। यहां गणपति मयूर पर सवार (मोरेश) हैं, मान्यता है कि यहां सिंधू राक्षस का वध किया था। गणेश की सूढ़ बांयी ओर है और उनके अगल-बगल ऋद्धि-सिद्धि की प्रतिमाएं भी हैं। पूरे शरीर पर सिंदूर का लेपन है और सिर पर मुकुट की तरह नाग फन फैलाए है। मंदिर गांव के बीचोंबीच है। मंदिर की चारदीवारी देखकर दूर से ऐसा अहसास होता है मानो यह कोई मस्जिद हो। मुगल काल में आक्रमण से बचने के लिए मंदिर को यह शक्ल दी गई। मंदिर के बाहर नंदी भी विराजमान है, जो आमतौर पर शिव मंदिरों के नजर आता है। यहां इसकी एक कहानी सुनाई जाती है कि इस नंदी को किसी शिव मंदिर के लिए बैलगाड़ी से ले जाया जा रहा था, इस स्थान पर बैलगाड़ी टूट गई और नंदी को यहां से हटाया नहीं जा सका। मुख्य दरवाजे से प्रवेश करने के बाद मूसक विराममान है उसके दोनों ओर दीपमाला हैं।
चिंतामणि मंदिर पुणे से 25 किलोमीटर दूर पुणे-शोलापुर हाइवे पर हवेली तालुका के थेऊर गांव में स्थित है। माना जाता है कि गणेश ने इसी स्थान पर कपिल मुनि को चिंतामणि नामक मणि वापस लाकर दी। हालांकि कपिल मुनि ने इसे वापस गणेश के गले में ही धारण करा दिया। इसीलिए इनका नाम चिंतामणि विनायक कहलाया। यह घटना कदंब के पेड़ के नीचे हुई, इसलिए पुराने समय में यह स्थान कदंब नगर भी कहलाता था और पास के तालाब को कदंबतीर्थ कहा जाता है। मंदिर के पास ही मूल, मूठा व भीमा नदी का संगम है। प्रतिमा सिंदूर लेपित है, सूढ़ बांयी ओर है, नेत्रों में हीरे जड़े हैं। मंदिर परिसर में ही एक शिवमंदिर है जिसे मोरया गोसावी के वंशज धरणीधर महाराज देव ने बनवाया था। बाहर का लकड़ी का परिसर पेशवाओं ने बनवाया।
सिद्धिविनायक मंदिर पुणे से 96 किलोमीटर दूर अहमदनगर जिले के कर्जत इलाके के सिद्धटेक गांव में भीमा नदी के तट पर स्थित है। माना जाता है कि महाविष्णु ने मधु व कैटभ का संहार करने से पहले यहां गणेश स्थापना की थी। यहां विराजमान गणपति आठों में से अकेले एेसे हैं जिनकी सूढ़ दाहिनी ओर है। दाहिनी ओर सूढ़ वाले विनायक सिद्धिविनायक कहे जाते हैं। माना जाता है कि मोरया गोसावी व नारायण महाराज नामक संतों को यहां गणपति साक्षात्कार हुआ। सिद्धि विनायक की परिक्रमा का काफी महत्व है। भीमा नदी के तट पर छोटी सी पहाड़ी पर पेशवा नायक हरिपंत फड़के ने इस मंदिर परिसर का निर्माण कराया, निज मंदिर अहिल्याबाई होल्कर ने 18वीं सदी में बनवाया था। अहमदनगर जिले में पुणे-शोलापुर हाइवे पर स्थित यह मंदिर ढोंड रेलवे स्टेशन से करीब 18 किलोमीटर दूर है।
महागणपति मंदिर पुणे से 50 किलोमीटर दूर पुणे-अहमदनगर हाइवे पर रांजणगांव में स्थित है। माना जाता है कि स्वयं महादेव ने त्रिपुरासुर के वध करने से पहले यहां गणपति की स्थापना की थी। पहले यह स्थान मणिपुर कहलाता था। महागणपति की सूूढ़ बांयी ओर मुड़ी हुई है और पालथी मारकर बैठने की मुद्रा में कमल पर विराजमान है। मंदिर के द्वार पर जय-विजय की प्रतिमा हैं। मंदिर का निर्माण इस तरह किया गया हैै कि जब सूर्य दक्षिणायन में रहता है तो उसकी किरणें सीधे गणपति पर आती हैं।
विघ्नेश्वर मंदिर पुणे से 85 किलोमीटर दूर जूनार तालुका के ओझर गांव में स्थित है। माना जाता है यहां गणेश ने विघ्नासुर को हराया, लेकिन दया करके उसका वध नहीं किया और इस शर्त के साथ छोड़ दिया कि जहां गणेश की पूजा हो रही होगी, वहां विघ्नासुर नहीं जाएगा। विघ्नासुर के आग्रह पर यहां विनायक का नाम विघ्नेश्वर कहलाया। मंदिर का निर्माण 1785 के आसपास हुआ है। मंदिर की दीवारें इतनी चौड़ी हैं कि आप इन पर टहल सकते हैं। मंदिर कुकडी नदी के तट पर स्थित है।
गिरिजात्मज मंदिर पुणे से 94 किलोमीटर दूर पुणे-नासिक हाइवे पर लेण्याद्री गणेश पहाड़ी पर है। गिरिजात्मज का अर्थ है गिरिजा (शिव पत्नी पार्वती) का आत्मज (बेटा)। माना जाता है कि गणेश को बेटे के रूप में पाने के लिए पार्वती ने यहां तप किया था। लेण्याद्री के 26 बौद्ध गुफा समूहों में से 7वीं गुफा में गिरिजात्मज विराजमान है, इसे गणेश लेणी या गणेश गुफा भी कहा जाता है। पहाड़ी की चोटी पर एक ही चट्टान को खोद इस गुफा और 307 सीढ़ियां बनाई गई हैं। यह स्थान नारायणगांव से 12 किलोमीटर दूर है और शिवाजी महाराज के जन्मस्थान शिवनेरी किल्ला से करीब 5-6 किलोमीटर दूर है।
वरदविनायक मंदिर मुंबई से 63 किलोमीटर दूर रायगढ़ जिले के महड गांव में स्थित है। शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को यहां विशेष पूजा होती है। माना जाता है कि वरदविनायक के स्मरण मात्र से हर मनोकामना पूरी हो जाती है। यहां नंददीप का दीया सन् 1892 से सदा प्रज्जवलित है। गणेश की प्रतिमा यहां मंदिर के बाहर तालाब में मिली थी, वह प्रतिमा अच्छी अवस्था में नहीं थी इसलिए मूल गर्भगृह में नई प्रतिमा स्थापित की गई। सन् 1725 में कल्याण सूबेदार व रामजी महादेव बिवालकर ने इस मंदिर का निर्माण कराया। अष्टविनायकों में से अकेले ऐसे विनायक हैं, जिन्हें श्रद्धालु व्यक्तिगत रूप से स्पर्श कर सकते हैं। यहां बिल्कुल करीब जाकर विनायक का पूजन कर सकते हैं। मंदिर के चारों किनारों पर एक-एक हाथी की प्रतिमा बनी है। यह मंदिर कर्जत रेलवे स्टेशन से 24 किलोमीटर और खोपोली कस्बे से महज 6 किलोमीटर दूर है।
बल्लालेश्वर मंदिर पुणे से 111 दूर पाली कस्बे में स्थित है। यहां गणेश का नाम अपने बालभक्त बल्लाल के नाम पर पड़ा। यहां गणपति को मोदक के स्थान पर बेसन के लड्डू का भोग लगाया जाता है। दोनों नेत्रों व नाभि में हीरा जड़ा है। यहां गणेश का अकेला अवतार है जिन्हें पारंपरिक वस्त्र धारण कराए जाते हैं। जब सूर्य दक्षिणायन होता है, तब उदय के समय सूर्य की किरण सीधे गणपति तक पहुंचती हैं। यह मंदिर पहले लकड़ी का था, सन् 1760 में नाना फड़नवीस ने काले पत्थर से दोबारा बनवाया गया। मंदिर के ठीक पीछे ढुंडी विनायक विराजमान है जिनका मुख पश्चिम की ओर है। परंपरा है कि बल्लालेश्वर विनायक के दर्शन से पहले श्रद्धालु ढुंडी विनायक के दर्शन क रते हैं।
-आलंदी-पुणे से करीब 25 किलोमीटर दूर यह कस्बा संत ज्ञानेश्वर की समाधि के रूप में जाना जाता है। यहां संत ज्ञानेश्वर ने जीवित समाधि ली थी। इंद्रायणी नदी के तट पर उनका समाधि मंदिर है। नदी के तट पर घाट भी बेहद सुंदर हैं।
-देहू-पुणे से करीब 24 किलोमीटर दूर यह कस्बा संत तुकाराम का जन्म स्थान व मोक्ष स्थल है। तुकाराम द्वारा स्थापित बिठोबा मंदिर देहू का प्रसिद्ध दर्शनीय स्थल है।
-पैठण-औरंगाबाद से 60 किलोमीटर दूर गोदावरी के उत्तरी तट पर है। यह गांव संत एकनाथ जी और संत ज्ञानेश्वर की जन्मभूमि है। पैठण का मूंगी गांव वैष्णवी निम्बार्क संप्रदाय के संस्थापक निम्बार्क का जन्मस्थान है। यह स्थान पैठणी साड़ियों के लिए प्रसिद्ध है।
अष्टविनायक यात्रा की शुरूआत मोरेगांव में मोरेश्वर गणपति के दर्शन के साथ होती है।