देश के चार धामों में शामिल बद्रीनाथ की यात्रा के साथ उत्तराखंड के केदारनाथ, गंगोत्री व यमुनोत्री की यात्रा
जब मैं वृंदावन से दिल्ली आया तभी से चारधाम की यात्रा का ख्याल दिल में आ गया था। हर साल जिस दिन बद्रीनाथ के कपाट खुलने की खबर अखबार में आती थी तो यह ख्याल ताजा हो जाता लेकिन साथ ही जब यात्रा की किसी बस के खाई में गिरने से यात्रियों के जान गंवाने की खबरें सुनता तो मन घबरा जाता था। सन 2002 में संयोग से मुझे चारधाम पर एक लेख लिखना पड़ा तो मैंने काफी रिसर्च की। आने-जाने के रास्ते का व्यापक अध्ययन किया। जब मैं वृंदावन से दिल्ली आने लगा था तो अपने बैग में कुछ किताबें भी लेकर आया था और उनमें से एक कल्याण का तीर्थांक था। इसमें देशभर के हर हिस्से के सभी तीर्थों की प्रामाणिक ब्यौरा है। एक बात और जो इस संदर्भ में याद आ रही है कि सन् 2000 के आसपास टीवी पर एक सीरीयल आता था-यात्रा, जिसकी एंकरिंग करती थी दीप्ति भटनागर। यात्रा के हर एपिसोड की शुरूआत में लता मंगेशकर की आवाज में एक गीत आता था-ये ही यात्रा, मेरी यात्रा। इतना कर्णप्रिय कि आज भी मेरे कानों में गूंजता है। इसमें मैंने यमुनोत्री और गंगोत्री वाला सीरियल देखा तो यह इच्छा बहुत मजबूत हो गई कि एक बार यमुनोत्री और गंगोत्री जरूर जाना है। वैसे भी वृंदावन में रहते हुए यमुना से लगाव तो है ही इसलिए भी यमुना के उद्गम तक जाने की इच्छा मन में थी। बचपन में बहुत गर्व से कहा करते थे कि यमुनोत्री से संगम (प्रयाग) तक यूपी ही है, 2000 में उत्तराखंड बना तबसे यमुनोत्री उत्तराखंड का हिस्सा हो गया और 2001 से ही उत्तराखंड बद्री, केदार, यमुनोत्री व गंगोत्री को मिलाकर छोटा चारधाम यात्रा के नाम से व्यापक प्रचार करने लगा। उत्तराखंड के सूचना केंद्र से मैंने इस बारे में काफी जानकारी एकट्ठा की। लेकिन जाने का मौका कभी नहीं मिल पाया क्योंकि यही एक मात्र ऐसी यात्रा है जहां अंत तक ट्रेन से जाना संभव नहीं है। इसलिए सड़क मार्ग से जाने में अन्य यात्राओं की तुलना में अपेक्षाकृत ज्यादा समय लगता है। जब अनन्य बड़ा हो गया तो मैंने लगभग हर साल ही उत्तराखंड के चार धाम जाने की योजना बनाई पर एनवक्त पर कभी पर्याप्त समय नहीं होने और कभी टिकट बुक न होने, कभी पैसे की कमी के चलते यात्रा रद्द हो जाती। आलम यह हुआ कि यहां तो नहीं जा पाए बल्कि यहां जाने से पहले हम एक साल द्वारका, फिर अगले साल पुरी और उससे अगले साल रामेश्वरम, फिर गंगासागर हो आए तब अंत में जाकर 2018 में वह मौका आया कि हमें उत्तराखंड के चारधाम जाने का मौका मिला। हमने करीब तीन महीने से तैयारी शुरू कर दी। गढ़वाल मंडल विकास निगम ने जैसे ही अपनी बुकिंग शुरू की, बाराखंभा ऑफिस जाकर मैंने तीन टिकट बुक करवा दी। मैं बस में नहीं जाना चाहता था, कार महंगी पड़ रही थी, सो 12 सीट वाली टैंपो ट्रैवलर से जाना तय किया।
जब मैं वृंदावन से दिल्ली आया तभी से चारधाम की यात्रा का ख्याल दिल में आ गया था। हर साल जिस दिन बद्रीनाथ के कपाट खुलने की खबर अखबार में आती थी तो यह ख्याल ताजा हो जाता लेकिन साथ ही जब यात्रा की किसी बस के खाई में गिरने से यात्रियों के जान गंवाने की खबरें सुनता तो मन घबरा जाता था। सन 2002 में संयोग से मुझे चारधाम पर एक लेख लिखना पड़ा तो मैंने काफी रिसर्च की। आने-जाने के रास्ते का व्यापक अध्ययन किया। जब मैं वृंदावन से दिल्ली आने लगा था तो अपने बैग में कुछ किताबें भी लेकर आया था और उनमें से एक कल्याण का तीर्थांक था। इसमें देशभर के हर हिस्से के सभी तीर्थों की प्रामाणिक ब्यौरा है। एक बात और जो इस संदर्भ में याद आ रही है कि सन् 2000 के आसपास टीवी पर एक सीरीयल आता था-यात्रा, जिसकी एंकरिंग करती थी दीप्ति भटनागर। यात्रा के हर एपिसोड की शुरूआत में लता मंगेशकर की आवाज में एक गीत आता था-ये ही यात्रा, मेरी यात्रा। इतना कर्णप्रिय कि आज भी मेरे कानों में गूंजता है। इसमें मैंने यमुनोत्री और गंगोत्री वाला सीरियल देखा तो यह इच्छा बहुत मजबूत हो गई कि एक बार यमुनोत्री और गंगोत्री जरूर जाना है। वैसे भी वृंदावन में रहते हुए यमुना से लगाव तो है ही इसलिए भी यमुना के उद्गम तक जाने की इच्छा मन में थी। बचपन में बहुत गर्व से कहा करते थे कि यमुनोत्री से संगम (प्रयाग) तक यूपी ही है, 2000 में उत्तराखंड बना तबसे यमुनोत्री उत्तराखंड का हिस्सा हो गया और 2001 से ही उत्तराखंड बद्री, केदार, यमुनोत्री व गंगोत्री को मिलाकर छोटा चारधाम यात्रा के नाम से व्यापक प्रचार करने लगा। उत्तराखंड के सूचना केंद्र से मैंने इस बारे में काफी जानकारी एकट्ठा की। लेकिन जाने का मौका कभी नहीं मिल पाया क्योंकि यही एक मात्र ऐसी यात्रा है जहां अंत तक ट्रेन से जाना संभव नहीं है। इसलिए सड़क मार्ग से जाने में अन्य यात्राओं की तुलना में अपेक्षाकृत ज्यादा समय लगता है। जब अनन्य बड़ा हो गया तो मैंने लगभग हर साल ही उत्तराखंड के चार धाम जाने की योजना बनाई पर एनवक्त पर कभी पर्याप्त समय नहीं होने और कभी टिकट बुक न होने, कभी पैसे की कमी के चलते यात्रा रद्द हो जाती। आलम यह हुआ कि यहां तो नहीं जा पाए बल्कि यहां जाने से पहले हम एक साल द्वारका, फिर अगले साल पुरी और उससे अगले साल रामेश्वरम, फिर गंगासागर हो आए तब अंत में जाकर 2018 में वह मौका आया कि हमें उत्तराखंड के चारधाम जाने का मौका मिला। हमने करीब तीन महीने से तैयारी शुरू कर दी। गढ़वाल मंडल विकास निगम ने जैसे ही अपनी बुकिंग शुरू की, बाराखंभा ऑफिस जाकर मैंने तीन टिकट बुक करवा दी। मैं बस में नहीं जाना चाहता था, कार महंगी पड़ रही थी, सो 12 सीट वाली टैंपो ट्रैवलर से जाना तय किया।
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